18वीं शताब्दी के मध्य से औपनिवेशिक भारत में आये अकाल के कारण लाखों लोग भोजन की कमी और राहत उपायों की कमी के कारण मर गए। यह कृत्रिम अकाल काफी हद तक ब्रिटिश नीतियों के कारण पैदा हुआ था, जो प्राकृतिक आपदाओं और बदलते कृषि प्रणालियों के प्रभाव के साथ-साथ स्थानीय जरूरतों पर भोजन और कच्चे माल के निर्यात को प्राथमिकता देने के कारन उपजा था।
18वीं शताब्दी के मध्य से औपनिवेशिक भारत में अकालों में अचानक आई तेजी के कई प्रमुख कारक हैं:
भूमि राजस्व नीति
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमि राजस्व नीति, जिसने इस अवधि के दौरान भारत के अधिकांश हिस्से को लागू कर दिया गया था, अकालों में एक प्रमुख योगदानकर्ता थी। कंपनी ने जमींदारों और किसानों से उच्च राजस्व की मांग की, जिसने उन्हें खाद्य फसलों के बजाय नकदी फसलों की खेती करने के लिए मजबूर किया। इससे रोजमर्रा के भोजन में उपयुक्त होने वाले अनाजों के पैदावार में कमी आ गई, जिससे जयदादातर आबादी अकाल की चपेट में आ गई।
कृषि का व्यावसायीकरण
अंग्रेजों ने भारत में कृषि के व्यावसायीकरण को भी प्रोत्साहित किया, जिससे कपास, अफीम और नील जैसी नकदी फसलों का विकास हुआ। नतीजतन, चावल और गेहूं जैसी खाद्य फसलों की खेती कम हो गई, जिससे अकाल के दौरान खाद्य पदार्थो की कमी हो गई।
बुनियादी ढांचे की अनदेखी
अंग्रेजों ने सिंचाई प्रणाली जैसे बुनियादी ढांचे के विकास की उपेक्षा की, जो सूखे और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकता था। बुनियादी ढांचे में निवेश की कमी ने किसानों के लिए अकाल के दौरान एक बड़े आबादी के लिए पर्याप्त भोजन का उत्पादन करना कठिन बना दिया।
बाजार की ताकतें
ब्रिटिश नीतियों ने एक खुले बाजार का निर्माण कर दिया था जिसमें धनी व्यापारियों और उद्योगपतियों का वर्चस्व था। इन बाजार शक्तियों ने जमाखोरी और सट्टेबाजी जैसे दुर्नीतियों को भी जन्म दिया, जिससे अकाल के दौरान भोजन की कृत्रिम कमी आ गई और उनकी आसमान को छूती कीमतें बढ़ गईं।
राजनीतिक और सामाजिक संस्थाएँ
औपनिवेशिक शासन ने नई राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं की शुरुआत की, जिन्होंने अकाल के दौरान राहत और सहायता की पारंपरिक प्रणालियों को बाधित किया। इससे भोजन की कमी से निपटने के लिए स्थानीय तंत्र में खराबी आ गई, जिससे एक बड़ी आबादी को जानबूझकर भुखमरी के तरफ ढकेल दिया गया।
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Sudeep Chakravarty
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